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इन्द्र॒ सोमं॒ पिब॑ ऋ॒तुना त्वा॑ विश॒न्त्विन्द॑वः। म॒त्स॒रास॒स्तदोक॑सः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indra somam piba ṛtunā tvā viśantv indavaḥ | matsarāsas tadokasaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्र॑। सोम॑म्। पिब॑। ऋ॒तुना॑। आ। त्वा॒। वि॒श॒न्तु॒। इन्द॑वः। म॒त्स॒रासः॒। तत्ऽओ॑कसः॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:15» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:28» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:4» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पन्द्रहवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में ऋतु-ऋतु में रस की उत्पत्ति और गति का वर्णन किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य ! यह (इन्द्र) समय का विभाग करनेवाला सूर्य्य (ऋतुना) वसन्त आदि ऋतुओं के साथ (सोमम्) ओषधि आदि पदार्थों के रस को (पिब) पीता है, और ये (तदोकसः) जिनके अन्तरिक्ष वायु आदि निवास के स्थान तथा (मत्सरासः) आनन्द के उत्पन्न करनेवाले हैं, वे (इन्दवः) जलों के रस (ऋतुना) वसन्त आदि ऋतुओं के साथ (त्वा) इस प्राणी वा अप्राणी को क्षण-क्षण (आविशन्तु) आवेश करते हैं॥१॥
भावार्थभाषाः - यह सूर्य्य वर्ष, उत्तरायण दक्षिणायन, वसन्त आदि ऋतु, चैत्र आदि बारहों महीने, शुक्ल और कृष्णपक्ष, दिन-रात, मुहूर्त जो कि तीस कलाओं का संयोग कला जो ३० (तीस) काष्ठा का संयोग, काष्ठा जो कि अठारह निमेष का संयोग तथा निमेष आदि समय के विभागों को प्रकाशित करता है। जैसे कि मनुजी ने कहा है, और उन्हीं के साथ सब ओषधियों के रस और सब स्थानों से जलों को खींचता है, वे किरणों के साथ अन्तरिक्ष में स्थित होते हैं, तथा वायु के साथ आते-जाते हैं॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

तत्र प्रत्यृतुं रसोत्पत्तिर्गमनं च भवतीत्युपदिश्यते।

अन्वय:

हे मनुष्य ! अयमिन्द्र ऋतुना सोमं पिब पिबति। इमे तदोकसो मत्सरास इन्दवो जलरसा ऋतुना सह त्वा त्वां तं वा प्रतिक्षणमाविशन्त्वाविशन्ति॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) कालविभागकर्त्ता सूर्यलोकः (सोमम्) ओषध्यादिरसम् (पिब) पिबति। अत्र व्यत्ययः, लडर्थे लोट् च। (ऋतुना) वसन्तादिभिः सह। अत्र जात्याख्यायामेकस्मिन् बहुवचनमन्यतरस्याम्। (अष्टा०१.२.५८) अनेन जात्यभिप्रायेणैकत्वम्। (आ) समन्तात् (त्वा) त्वां प्राणिनमिममप्राणिनं पदार्थं सूर्य्यस्य किरणसमूहं वा (विशन्तु) विशन्ति। अत्र लडर्थे लोट्। (इन्दवः) जलानि उन्दन्ति आर्द्रीकुर्वन्ति पदार्थास्ते। अत्र उन्देरिच्चादेः। (उणा०१.१२) इत्युः प्रत्ययः, आदेरिकारादेशश्च। इन्दव इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (मत्सरासः) हर्षहेतवः (तदोकसः) तान्यन्तरिक्षवाय्वादीन्योकांसि येषां ते॥१॥
भावार्थभाषाः - अयं सूर्य्यः संवत्सरायनर्तुपक्षाहोरात्रमुहूर्त्तकलाकाष्ठानिमेषादिकालविभागान् करोति। अत्राह मनुः— निमेषा दश चाष्टौ च काष्ठा त्रिंशत्तु ताः कलाः। त्रिंशत्कला मुहूर्तः स्यादहोरात्रं तु तावतः॥ (मनु०१.६४) इति। तैस्सह सर्वौषधिभ्यो रसान् सर्वस्थानेभ्य उदकानि चाकर्षति तानि किरणैः सहान्तरिक्षे निवसन्ति। वायुना सह गच्छन्त्यागच्छन्ति च॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

जे सर्व देवांचे अनुयोगी वसंत इत्यादी ऋतू आहेत, त्यांचे यथायोग्य गुण प्रतिपादन करून चौदाव्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर या पंधराव्या सूक्ताच्या अर्थाची संगती जाणली पाहिजे.

भावार्थभाषाः - सूर्य हा वर्ष, उत्तरायण, दक्षिणायन, वसंत इत्यादी ऋतू, चैत्र इत्यादी बारा महिने, शुक्ल व कृष्णपक्ष, दिवसरात्र मुहूर्त जो ३० कलांचा संयोग व कला ३० काष्ठांचा संयोग, काष्ठा अठरा निमिषांचा संयोग तसेच निमेष इत्यादी कालांच्या विभागांना प्रकट करतो. त्यांच्याबरोबरच तो सर्व औषधींचे रस व सर्व ठिकाणांहून जल ओढून घेतो. ते किरणांबरोबर अंतरिक्षात स्थित होऊन वायूबरोबर जातात, येतात. ॥ १ ॥